भगिनी निवेदिता धर्म, अध्यात्म तथा भारतीय संस्कृति से प्रभावित होकर अपना देश व परिवार छोड़कर भारत आईं। स्वामी विवेकानंद के प्रवचनों ने उन्हें इसके लिए प्रेरित किया था। एक दिन उन्होंने देखा कि स्वामी विवेकानंद किसी जिज्ञासु के प्रश्न का उत्तर देते हुए कह रहे थे कि बेसहारा अनाथ बच्चे साक्षात भगवान के समान हैं। दरिद्रनारायण की सेवा भगवान की सेवा है। भगिनी निवेदिता ने उसी समय संकल्प ले लिया कि वह बंगाल में अनाथ बालक-बालिकाओं के कल्याण के लिए एक आश्रम की स्थापना करेंगी। भगिनी निवेदिता कोलकाता के धनाढ्यों के पास पहुंचकर आश्रम के लिए दान मांगने लगीं। एक दिन वह किसी ऐसे सेठ के पास जा पहुंची,
जो अत्यंत कंजूस था। उसने विदेशी गोरी युवती को दान मांगते देखा, तो कहा, ‘मैंने मेहनत से एक-एक पैसा जोड़ा है। आश्रम-वाश्रम में दान क्यों दूं?’ फिर भी, निवेदिता बार-बार कुछ देने का आग्रह करती रहीं। बार-बार मांगने से सेठ आपा खो बैठा और उसने भगिनी निवेदिता को थप्पड़ जड़ दिया। थप्पड़ खाकर भी उस युवती ने धैर्य के साथ कहा, ‘आपने मुझे थप्पड़ दिया, इसे मैं स्वीकार करती हूं। अब अनाथ बच्चों के लिए भी तो कुछ दीजिए।’ सेठ भगिनी निवेदिता की सहनशीलता और समर्पण देख अपने कृत्य पर पछताने लगा। उसने आलमारी से रकम निकालकर उन्हें भेंट कर दी। साथ ही अपने व्यवहार के लिए उनसे क्षमा भी मांगी।
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